हमारे खिलाड़ी दुनिया के बड़े-बड़े फुटबॉल टूर्नामेंट में खेल नहीं पाते

पिछले एक महीने से पूरी दुनिया में फुटबॉल का माहौल बना हुआ है। बेशक यह एक ऐसा स्पोर्ट्स इवेंट है, जो पूरी दुनिया को एक सूत्र में पीरो देता है। हालांकि भारत कभी भी इसमें शिरकत नहीं कर पाया है, लेकिन इस खेल के प्रति लोगों का उत्साह किसी और मुल्क से जरा भी कम नहीं है। भारत के लोग भले ही फ्री-टिकट वाली घरेलू फुटबॉल लीग भी देखने नहीं जाते, लेकिन रूस में आयोजित इस वर्ल्ड कप का मजा लेने के लिए दस हज़ार से ज्यादा भारतीयों ने टिकट खरीदा है। फुटबॉल वर्ल्ड कप का जब भी जिक्र होता है हर भारतीय के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर कब हमारी फुटबॉल टीम फीफा वर्ल्ड कप खेलेगी? इसी सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं नीरज झा:
बेशक भारत में क्रिकेट के बाद सबसे ज़्यादा लोकप्रिय खेल फुटबॉल ही है और टीवी रेटिंग्स ने इसे बार-बार साबित भी किया है। इसके बाबजूद हम इस खेल में दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले काफी पीछे हैं। ऐसा भी नहीं है कि भारत के पास पैसों और संस्थानों की कोई कमी है या फिर हम फुटबॉल नहीं खेलना चाहते। फिर ऐसी कौन-सी वजह है कि हम और हमारे खिलाड़ी दुनिया के बड़े-बड़े फुटबॉल टूर्नामेंट में खेल नहीं पाते।
भारत में फुटबॉल
फीफा के पूर्व अध्यक्ष सेप ब्लैटर ने कुछ साल पहले कहा था कि भारत फुटबॉल जगत का सोया हुआ शेर है। शायद यह कथन सच भी हो, लेकिन सवाल यही है कि यह सोया हुआ शेर जागेगा कब? कब इसकी कुंभकरणी नींद टूटेगी? फीफा भारत में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए काफी कोशिश कर रहा है। पिछले चार-पांच बरसों में भारतीय पुरुष फुटबॉल टीम की रैकिंग में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। साल 2014 में भारतीय टीम दुनिया में 170वें नंबर पर थी जो अब बेहतर प्रदर्शन के बाद 97वें नंबर पर आ चुकी है। इंडियन सुपर लीग और यूथ लीग से भारत में फुटबॉल के प्रचार-प्रसार को काफी सहारा मिला है।
दुनिया की आबादी साढ़े 7.6 अरब से कुछ ज्यादा है और करीब 1.3 अरब की आबादी इस मुल्क में रहती है, लेकिन आइसलैंड, सेनेगल और क्रोएशिया जैसी छोटी मुल्कों के सामने भी हम फुटबॉल में फिसड्डी हैं। इस साल के वर्ल्ड कप में इन छोटे देशों ने अपने खेल से बड़े-बड़े मुल्कों को चौंकाया ही नहीं, जोरदार झटका भी दिया है। अफसोस कि 2018 फुटबॉल विश्वकप में 736 खिलाड़ियों में से कोई भी भारतीय नहीं है।
वर्ल्ड कप ने यह भी दिखा दिया है कि फुटबॉल में देश की जनसंख्या या फिर वहां की अर्थव्यवस्था ज्यादा मायने नहीं रखती। सेनेगल भले ही इस वर्ल्ड कप में हिस्सा लेने वाला सबसे गरीब देश था, लेकिन सऊदी अरब जैसे अमीर देशों को भी उसने पछाड़ दिया। दुनिया के सबसे अमीर देशों में शामिल (प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से) स्विट्ज़रलैंड, 1954 के बाद कभी भी क्वार्टर फाइनल के आगे नहीं पहुंच पाया है। आइसलैंड की जनसंख्या सिर्फ 3.5 लाख है, लेकिन अर्जेंटीना जैसी बड़ी टीम के खिलाफ मैच में 1:1 की बराबरी करके उसने सबको चौंका दिया। यही नहीं 40 लाख की जनसंख्या वाली क्रोएशिया तो फाइनल तक पहुंच गई है। फाइनल में पहुंचने वाला क्रोएशिया दुनिया का दूसरा सबसे छोटा मुल्क है।
फीफा के साउथ सेंट्रल एशिया डिवेलपमेंट के पूर्व अधिकारी और दिल्ली फुटबॉल संघ के अध्यक्ष शाजी प्रभाकरन का मानना है, ‘भारतीय फुटबॉल में पैसा लाने से ज्यादा जरूरी है कि हम एक अच्छा सिस्टम बनाएं, जिससे अच्छे खिलाड़ी खुद-ब-खुद निकल कर आएं।’ उनका यह भी मानना है कि अगर भारत में फुटबॉल संस्कृति सही रूप से विकसित होती है तो स्टार खिलाड़ी भी अपने आप ही पैदा हो जाएंगे। बात भी सही है मेसी और रोनाल्डो अपने देशों में फुटबॉल के प्रति दीवानगी की वजह से ही इतने लोकप्रिय हैं।
एशियाई देशों में कहां हैं हम
फुटबॉल एक्सपर्ट और कई बरसों से भारतीय फुटबॉल को काफी नज़दीक से समझनेवाले कॉमेनटेटर नोवी कपाडिया के अनुसार, ‘एशिया में भी हम्मारी स्थिति अच्छी नहीं है। एशिया की पांच टीमें जिन्हें वर्ल्ड कप 2018 के आखिरी 32 में जगह मिली थी वे हैं जापान, साउथ कोरिया, ईरान, सऊदी अरब और ऑस्ट्रेलिया। ये टीमें हमसे कई गुना बेहतर टीमें हैं। इन पांच टीमों के बाद जो अगली पंक्ति है, उसमें चीन, यूएई, कतर, कुवैत, सीरिया, बहरीन, इराक, नॉर्थ कोरिया, उज़्बेकिस्तान और थाईलैंड शामिल है। हमारी टीम तो तीसरी पंक्ति में खड़ी है, इसीलिए हमें वर्ल्ड कप में क्वॉलिफाइ करने से ज्यादा, दूसरी पंक्ति में आने के लिए अपनी पूरी ताकत लगानी चाहिए।’
8 में से 7 में हार
2018 के वर्ल्ड कप क्वॉलिफायर में भारत को अपने कुल 8 मैच में से 7 में हार मिली थी। नोवी के मुताबिक, ‘इस वर्ल्ड कप से हमें कई चीज़ें सीखने को मिली हैं। सुनील छेत्री की टीम भले ही एशिया की टॉप टीमों में नहीं हो, लेकिन उनकी टीम को साउथ कोरिया से सीखने की जरूरत है। जिस तरह से उन्होंने अपने से कई गुना बेहतर टीम जर्मनी को मात दी और उन्हें आगे जाने से रोक दिया, वैसे ही छेत्री की टीम को भी पहले एशियाई टीमों को हराकर अपनी रैंकिंग्स सुधारनी चाहिए।
क्लब और कोचिंग
पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बनने के लिए बहुत कुछ सीखने और करने की ज़रूरत होती है। इस खेल में न सिर्फ बेहतर शारीरिक और मानसिक क्षमता बल्कि रणनीतिक कुशलता भी ज़रूरी है। एक बेहतरीन स्कूल सिस्टम, सर्वश्रेष्ठ कोचिंग, विश्वस्तरीय सुविधाएं और हज़ारों घंटे पसीना बहाने के बाद ही कोई पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बन पाता है। मेसी एक सुपरस्टार अर्जेंटीना की वजह से नहीं, बल्कि बार्सिलोना की यूथ ‘अकैडमी-ला-मासिआ’ की वजह से बने। यहीं फर्क हो जाता है, जब हम भारत की बात करते हैं। शाजी का मानना है कि यूरोपियन मुल्कों में फुटबॉल के लिए एक बढ़िया इंफ्रास्ट्रक्चर बना हुआ है। वहां स्कूल, क्लब, अकैडमी का एक बना-बनाया बेहतरीन ढांचा है, जो उन्हें अपने आप ही एक से बढ़कर एक खिलाड़ी देते हैं। वहां सिलेक्टर्स के सामने टीम चुनने की बड़ी चुनौती होती है कि इतने सारे बेहतरीन खिलाड़ियों में से किस को चुनें!
अपने देश में ग्रासरुट लेवल पर एक बेहतर सिस्टम बनाए जाने की जरूरत है। तभी हम टैलंट खोज पाने में सफल होंगे। शाजी कहते हैं, ‘जब पिछले साल अंडर-17 वर्ल्ड कप भारत में हुआ था तो एक बेहतरीन माहौल बना था और सरकार ने भी खुलकर हर स्तर पर सहयोग दिया था। दर्शकों ने भी भारत में पहली बार फीफा द्वारा आयोजित इस वर्ल्ड कप में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, लेकिन कुछ महीने बाद ही सबकुछ फिर से सामान्य हो गया।’
विशेषज्ञों के मुताबिक, अगर भारत को फुटबॉल में क्वॉलिफाइ करना है तो इसकी शुरुआत आज से ही हो जानी चाहिए। इसमें देश के सभी राज्य इकाई, केंद्र सरकार, एआईएफएफए क्लब और अकैडमी, सबको मिलकर काम करना होगा और वह भी एक मिशन के साथ। इस मिशन का सबसे पहला कदम होगा टाटा फुटबॉल अकैडमी और चंडीगढ़ अकैडमी के तर्ज पर हर राज्य में कम से कम एक फुटबॉल अकैडमी जरूर हो। हालांकि एआईएफएफए के गोवा क्लब ने भी देश को कई अच्छे खिलाड़ी दिए हैं, इसके अलावा भी और कुछ अकैडमी हैं, लेकिन उनका स्तर उतना अच्छा नहीं है।
फिलहाल इस खेल में ज्यादातर खिलाड़ियों का मकसद आगे खेलने का नहीं, बल्कि स्पोर्ट्स कोटा के जरिए अच्छे कॉलेजों में एडमिशन लेना होता है। जब तक इस व्यवस्था में सुधार नहीं होता, तब तक मंजिल को पाना आसान नहीं होगा। खेल विशेषज्ञों की मानें तो अगर सही सिस्टम और प्लैन हो तो बहुत जल्द हम एशिया की बड़ी टीमों को चुनौती दे सकते हैं।
आईएसएल का असर
इंडियन सुपर लीग के आने से देश में फुटबॉल का काफी प्रचार हुआ है। आईएमजी मीडिया, रिलायंस इंडस्ट्रीज और स्टार स्पोर्ट्स ने मिलकर आईएसएल की नींव 2014 में रखी थी। पिछले चार सीजन में इस लीग ने फुटबॉल खेलने और दिखाने, दोनों के तरीकों में बदलाव किए हैं और बहुत हद तक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब भी रहे हैं। आईएसएल ने खेल को लोकप्रिय तो बनाया ही है, स्थानीय स्तर पर नए खिलाड़ियों के लिए भी एक बड़ा प्लेटफॉर्म खड़ा कर दिया है। कॉर्पोरेट सेक्टर से पैसा आने की वजह से इसका ब्रैंड वैल्यू भी बढ़ा है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें स्थानीय खिलाड़ियों को दुनिया के बड़े-बड़े खिलाड़ियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेलने का मौका मिलता है। करीब चार महीने चलने वाली आईएसएल में खिलाड़ियों के पास इस खेल की बारीकियों को नजदीक से सीखने का अच्छा मौका होता है। भारत की फीफा रैंकिंग्स में जो सुधार हुआ है, उसमें कहीं-न-कहीं आईएसएल का भी बहुत बड़ा योगदान है।
आईएसएल के होने से भारतीय फुटबॉल का मार्केट पर भी असर हुआ है। इसकी मार्केटिंग अच्छी हुई है। इससे खिलाड़ियों को पैसा आना भी शुरू हो गया है, जिससे अब वे अपने आप को इस खेल में पूरी तरह से झोंक सकते हैं। इंटरनैशनल लीगों की बराबरी करने और टीवी पर इसे सुंदर तरीके से दिखाने की वजह से अब खिलाड़ियों की अच्छी देखभाल, प्रॉपर डायट और बेहतरीन सपोर्ट स्टाफ मिल रहे हैं। इसके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर में भी काफी सुधार हो रहा है।
विदेशी क्लबों का अनुभव
भारतीय खिलाड़ियों का आईएसएल में खेलना तक तो ठीक है, लेकिन उससे ज्यादा अहम है हमारे खिलाड़ियों का इंटरनैशनल लीगों और क्लबों के लिए खेलना। यहां कहीं-न-कहीं हम पिछड़ जाते हैं। भारत के गिने-चुने खिलाड़ी ही हैं, जिन्हें विदेशी क्लबों में खेलने का मौका मिला है। भारत की वर्तमान टीम में सिर्फ दो ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हे विदेशी क्लब में खेलने का थोड़ा-सा अनुभव है। 2010 में कप्तान सुनील छेत्री कंसास सिटी के लिए मेजर लीग सॉकर यूएसए में खेलने गए थे। वह तीसरे भारतीय हैं जो भारत के बाहर खेलने के लिए गए, लेकिन वहां ज्यादा दिन नहीं टिक पाए और वापस आ गए। गोलकीपर गुरप्रीत सिंह संधू टीम के दूसरे ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें विदेशी क्लब में खेलने का मौका मिला। उनका 2014 में नॉर्वे की क्लब स्टाबेक के साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन हुआ था।
2026 में है चांस
भारत की बढ़ती रैंकिंग्स और खिलाड़ियों की बढ़ती क्षमता को देखते हुए ऐसा माना जा रहा है कि 2026 फीफा वर्ल्ड कप भारत के लिए एक बेहतर मौका होगा। फीफा ने पहले ही यह घोषणा कर दी है कि 2026 से वर्ल्ड कप में 32 की जगह कुल 48 टीमें शिरकत करेंगी। इसका मतलब यह हुआ कि एशियाई क्षेत्र से 4 और टीमों को खेलने का मौका मिलेगा। हालांकि भारत के लिए फिर भी क्वॉलिफाइ करना इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि एशिया में उनसे बेहतर टीमें हैं जो इस मौके के इंतज़ार में पहले से ही तैयार बैठी हैं। ऐसे में भारत को पूरी तैयारी के साथ मैदान पर उतरना होगा और उन्हें तैयारी भी अभी से शुरू करनी पड़ेगी। शाजी का मानना है कि भारत अगर अभी से सिस्टम ठीक कर ले और अपना वर्ल्ड कप लक्ष्य तय कर ले तो शायद 2034 तक हमारी टीम क्वॉलिफाइ कर सकती है।
बेशक इस वर्ल्ड कप से भारत को बहुत कुछ सीखने को मिला है। अब खिलाड़ियों, कोच और खेल प्रशासकों को खुले दिमाग से सोचने की जरूरत है। इसके अलावा उनको खेल और सिस्टम में होनेवाले बदलावों को भी दिमागी तौर पर अपनाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। ज्यादा निराश होने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि अच्छी खबर यह है कि बेंगलुरु के तीन खिलाड़ी ध्रुव अल्वा, नमन जग्गा और रोहन नेगी अगले महीने स्पेन जा रहे हैं, जहां ग्लोबल प्रीमियर सॉकर और मैड्रिड के इंटर सॉकर में उन्हें पूरी ट्रेनिंग मिलेगी। खास बात यह है कि तीनों की उम्र 16 साल है। ये हमारे देश की फुटबॉल के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और उम्मीद की जा सकती है कि ये खिलाड़ी भारत के वर्ल्ड कप में शामिल होने के सपने को पूरा करने में सक्षम होंगे।
Source:  navbharattimes  Web Title need a right kick be it football 
सही किक की जरूरत – Navbharat Times Hindi Newspaper
 
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